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- कल्पसूत्रे
सशब्दार्थे ||५४३॥
किं चेह बहुनोक्तेन, प्रत्यक्षेणैव दृश्यते । ।
अग्निभूते -: दोषोकस्य वर्तमानेऽपि तथा भण्डन लक्षणः"॥२॥
निवारणम् अर्थात्-सुना जाता है कि ज्ञान-ज्योतिप्राप्त और महातपस्वी ऋषि भी मदिरा । प्रव्रजनं च | पान के कारण अप्सराओं से अभिभूत होकर मूर्ख मनुष्य की तरह मौत के ग्रास बने । ॥ १॥ इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ ? मद्यपान की बुराई तो वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखी जाती है। शराबी सर्वत्र भांडा जाता है । २॥ इस विषय में विशेष जिज्ञासुओं को मेरे गुरु पूज्य आचार्य श्रीघासीलालजी महाराज की बनी हुई-आचारमणि मंजूषा नामक टीकावाले दशवैकालिक सूत्र के पांचवें अध्ययन के दूसरे उद्देशककी 'सुरं वा मेरगं वा वि' इत्यादि छत्तीसवीं आदि गाथाओं की व्याख्या देख लेनी चाहिए। तथा-जिस प्रकार नाना प्रकार की मूर्त औषधों से अमूर्त जीव का अनुग्रह होता हैरोग का नाश होता है, बल पुष्टि आदि की उत्पत्ति होकर उपकार होता है, उसी प्रकार
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