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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५३९॥ उपघात नरक निगोद आदि गतियों में ले जाकर पीडा पहुंचाना और अनुग्रह स्वर्ग अग्निभूते आदि गति में पहुंचा कर सुख का उपभोग करना-कैसे हो सकता है ? यहां संभव नहीं शङ्का निवारणम् कि मूर्त और अमूर्त में से एक उपघात्य हो और दूसरा उसका उपघातक हो, तथा एक प्रव्रजनं च अनुग्राह्य हो और दूसरा अनुग्राहक हो । इस विषय में दृष्टान्त देते हैं। यथा आकाश तलवार, आदि के द्वारा काटा नहीं जासकता और चन्दनादि के लेप से लेपा नहीं जासकता। इस प्रकार अग्निभूति के मनोगत संशय का समर्थन करके उसका निराकरण करने के लिये कहते हैं-हे अग्निभूति, तुम्हारा यह मत मिथ्या है। क्योंकि सर्वज्ञ कर्म 3 को प्रत्यक्ष से देखते हैं जैसे घट पट आदि को अथवा हथेली पर रक्खे आंवले को देखते हैं। अल्पज्ञ पुरुष जीवों की गति आदि को-विलक्षणता को देखकर अनुमान प्रमाण से कर्म को जानते हैं। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है-जीव कर्म से युक्त हैं क्योंकि उनकी गति में विचित्रता देखी जाती है । तथा कर्म की विचित्रता-भिन्नता के ॥५३९॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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