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इन्द्रभूतेः ।
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५२७॥
निवारणम्
प्रतिवोधश्च
| निदान (नियाणा) अर्थात् आगामी काल संबंधी विषयों की तृष्णा से रहित थे। स्थिर
थे। और समीचीन साधु आचार में तत्पर थे इसी निर्ग्रन्थ को आगे करके बिचरते थे। वह इन्द्रभूति-अनगार गौतम गोत्रीय साथ हाथ के ऊंचे शरीरवाले थे। हाथ, पैर, ऊपर नीचे के चारो भाग जिसके सम-समान हो उसको समचतुरस्र कहते हैं। ऐसे आकार विशेष को समचतुरस्त्र संस्थान कहते है। उनका वज्रऋषभ-नाराच संहनन था। कीली के आकार की हड्डी से मर्कट बंधको नाराच कहते हैं। अतः दोनों तरफ से मर्कट बंध से बंधी हुई और पट्ट की आकृति की तीसरी वेष्टित की हुई दोनों हड्डीयों के ऊपर, उन तीनों को फिर भी अधिक दृढ करने के लिये जहां कीलीके आकार की वज्र नामक, अस्थि लगी हुई हो वह वज्रऋषभ नाराच कहलाता हैं। जिस के द्वारा शरीर के पुद्गल दृढ किये जाएं, उस अस्थि निचय हड्डियों के रचना विशेष को संहनन कहते । ऐसा वज्रऋषभनाराच संहनन इन्द्रभूति अनगार को प्राप्त था। उनका शरीर ऐसा
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