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________________ कल्पमत्रे सशब्दार्थ ॥५१५॥ इन्द्रभूतेः निवारणम् प्रतिबोधश्च l हो रहा है [अलित्तपलित्तेणं भंते लोए] यहलोक आदीप्त प्रदीप्त हो रहा है [जराए- मरणेण य] जरा एवं मरण के दुःखो से [परिसहोवसग्गा फुसंतु] परीषहों एवं उपसर्ग से हानि न हो [ति कट्ट] ऐसा विचार कर के [एस मे नित्थारिए समाणे] यदि में उसको बचालू तो मेरी आत्मा [परलोयस्स]. परलोकमें [हियाए सुहाए] हितरूप, सुखरूप, [खेमाए] कुशलरूप [निस्सेयसाए] परंपरा से कल्याणरूप होगा [अणुगामियत्ताए] परलोकमें साथ रहनेवाला [भविस्सइ] होगा [तं इच्छामिणं देवाणुपिया] तो हे देवानुप्रिय मैं चाहता हूं [सयमेव. पव्वाविउं पत्थेमि] आपके द्वारा प्रवाजित करनेकी प्रार्थना करता हूं।' ... [तएणं समणे भगवं महावीरे 'इमो मे पढमो गणहरो भविस्सई' तिकटु तं पंच सयसिस्ससहियं निय हत्थेण पवावेईअ] तब श्रमण भगवान महावीर ने (यह मेरा | प्रथम गणधर होगा) इस प्रकार कहकर पांचसों शिष्यों के सहित इन्द्रभूति को अपने ॥५१५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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