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________________ कम्पपत्रे |तीनबार [आयाहिणं पयाहिणं करेइ] आदक्षिण प्रदक्षिणा करता है [करित्ता] आदक्षिणा ! इन्द्रभूतेः शकासशन्दार्थे| प्रदक्षिणा करके [एवं वयासी] इस प्रकार बोला [सदहामिणं भंते ! निगंथं पावयणं] हे. निवारणम् ॥५१२॥ ) भगवन् मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा करता हूं [पत्तियामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं] प्रतिबोधश्च हे भगवन निर्ग्रन्थ के प्रवचनों पर प्रतीती रखता हूं [रोएमि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं] हे भगवन् निग्रन्थ के प्रवचनों पर रुचि करता हूं [अब्भुटेमि णं भंते ! णिग्गंथं पाव.यणं] हे भगवान् में निर्ग्रन्थ प्रवचनों को स्वीकार करता हूं [एवमेअंभंते !] हे भगवन् । यह निर्ग्रन्थ प्रवचन इसी प्रकार है [तहमेअं भंते!] हे भगवन् यह यथावत् ही हैं [अवितहमेअं भंते] हे भगवन् यह प्रवचन सत्य है [असंदिद्धमेयं भंते !] हे भगवन यह प्रवचन संदेह रहित है [इच्छियमेअं भंते !] हे भगवन् यह प्रवचन इष्ट कारी है [पडिच्छियमेअं भंते !] हे. भगवन् यह प्रतिष्ठ है [इच्छियपडिच्छियमेअं भंते!] हे भगवन् ! यह । पतिष्ठित है [से जहेअं तुब्भे वदह] वह ऐसा ही है जैसे आप कहते हो [ति कटु] ॥५१२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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