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________________ कल्प सशब्दार्थे. ॥५११॥ होज्जा ] तुम्हारे यज्ञ दान आदिका कार्य करने का निमित्त कोन है ? [तव सत्थे वि वृत्तं स वै अयमात्मा ज्ञानमयः ] तुम्हारे शास्त्रों में भी कहा है- वह आत्मा निश्चय ही ज्ञानमय है [अओ सिद्धं जीवो अस्थिति ] अतः सिद्ध हुआ कि जीव है [इच्चाइ पंहुवयसोच्चा तस्स मिच्छत्तं जले लवणमिव सुज्जोदये तिमिरमिव चिंतामणिम्मि दारिद्दमिव गलियं] इत्यादि प्रभु के वचन सुनकर इंन्द्रभूति का मिथ्यात्व जल में नमक की भांति सूर्योदय में अंधकार तथा चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति होने पर दरिद्रता की तरह गल गया । [समणस्स भगवओ महावीरस्स] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की [अंतीए ] समीप से [धम्मं सोच्चा] धर्म का श्रवण करके [णिसम्म] हृदय में धारण कर के [हट्ठतुट्ठे जाव form] हृष्ट तुष्ट यावत् हृदयवाला होकर के [ अठ्ठाए उट्ठेइ । उत्थान शक्ति, से ऊठा [उट्ठत्ता ] ऊठकरके [समणं भगवं महावीरं ] श्रमण भगवान् महावीर को [तिक्खुत्तो ] इन्द्रभूतेः शङ्कानिवारणम् प्रतिबोधव ॥५११ ॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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