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कल्पसूत्रे दा
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आश्चर्य मानुं । [ एवं वियारेमाणं तं भगवं कहीअ गोयमा ! तुज्झ मणंसि एयारिलो संसओ वह - ] इस प्रकार विचार करते हुए इन्द्रभूति से भगवान ने कहा- गौतम ! तुम्हारे मन में ऐसा संशय है कि - [जं जीवो अस्थि णो वा ? अओ वेएसु - विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति' त्ति कहियमत्थि] जीव है या नहीं है ? क्योंकि वेदों में ऐसा कहा गया है कि विज्ञान घन ही भूतों से उत्पन्न होकर फिर उन्हीं में लीन हो जाता है। परलोक संज्ञा नहीं हैं [अस्स विसए कहेमि-तुमं वेयवयाणं अत्यं सम्मं ण जाणासि ] इस विषय में मैं ऐसा कहता हूं कि तुम वेदों के पदों का सही अर्थ नहीं जानते [जीवो अस्थि, जो चित्त चेयपण विष्णाण सन्नाइ लक्ख
जाणिज्ज] जीवका आस्तित्व है जो चित्त, चैतन्य, विज्ञान तथा संज्ञा लक्षणों से. जाना जाता है [जइ जीवो न सिया ताहे पुण्णपावाणं कत्ता को भवे ? ] यदि जीव न हो तो पुण्य पाप का कर्त्ता कौन है ? [तुझ जन्नदाणाइ कज्जकरणस्स निमित्तं को
इन्द्रभूतेः
शङ्कानिवारणम् प्रतिवोधश्व
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