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कल्पसूत्रे
दा ॥५०९॥
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समय में श्रमण भगवान महावीरने [तं इंदभूई-भो गोयमगोत्ता इंद भूइत्ति संबोहिय हियाए सुहाए महुराए वाणीए भासोअ] उन इन्द्रभूति से 'हे गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति ! इस प्रकार सम्बोधन करके हितरूप, सुखरूप, और मधुरवाणी से भाषण किया । [भगharaण सोच्चा सो पुणो अईव चगियचित्तो जाओ] भगवान का कथन सुनकर इन्द्रभूति और अधिक आश्चर्य चकित हो गये [अहो ! अणेण मम णामं कहं णायं ?] सोचने लगे- 'आश्चर्य है कि इन्हों ने मेरा नाम कैसे जान लिया ? [ एवं वियारिय मणंसि तेण समाहियं किमेत्थ अच्छेरगं-जं जगपसिद्धस्स तिजगगुरुस्स मज्झ नामं को न जाणइ ?] फिर मनही मन समाधान कर लिया- इस में विस्मय की बात ही कौन-सी हैं ? . मैं जगत् में प्रसिद्ध और तीनों जगत् का गुरु हूं । अतः मेरा नाम कोन नहीं जानता ? [मज्झ मणंसि जो संसओ वहइ - तं जइ कहेइ छिंदइय, ताहे अच्छेरं गणिज्जइ ] हां यदि मेरे मन में जो संशय विद्यमान है, उसे बतलादें और उसका निवारण करदें तो मैं
इन्द्रभूते
शङ्कानिवारणम्
प्रतिबोधश्च
॥५०९॥