SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवताकथितधर्मकथा कल्पसूत्रे | हो ऐसे के लिए [उवरयदंडेसु वा] मुनियों के लिए एवं [अनुवरयदंडेसु वा] सशब्दार्थे गृहस्थों के लिए [सोवहिएसु वा] हिरण्य सुवर्णादि अगर रागद्वेषादि उवधिवाले के ॥५०१॥ लिए [अणोवहिएसु वा] उपधि से रहितों के लिए [संजोगरएसु वा] पुत्रकलत्रादि में | रत हवे के लिए [असंजोगरएसु वा] संयम में रत हुवे के लिए [तच्चं चेयं] यही तथ्य है [तथा चेयं] जैसे मैने प्ररूपित किया है वैसा ही है [अस्सि चेयं पवुच्चइ] इसी धर्म में कोई विसंवाद नहीं है ॥१२॥ भावार्थ-तदनन्तर महावीर स्वामीने सिंहसेन राजा एवं सीलसेना नामक रानी और अनेक प्रकार के भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, एवं वैमानिक देवों और उनकी Pirail देवियां एवं इन्द्रभूति आदि ब्राह्मणवृंद आदि से भरी महति परिषदा में धर्मकथा कही जो इस प्रकार है-जिस सम्यक्त्वका तीर्थंकरादिकोंने उपदेश किया है वही में कहता हूं-अतीत काल में जितने तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में जो तीर्थकर ॥५०१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy