SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे द्वीन्द्रियादि पञ्चेन्द्रियपर्यन्त के जीवमात्र [सव्वेभूया] सभी भृत होनेवाले, हो गये एवं भगवतासशब्दार्थे कथितवर्तमान में हुवे [सव्वे जीवा] जी गये, जीते हुवे, जीनेवाले [सव्वे सत्ता] स्वकृत कर्म धर्मकथा ५०॥ बल से होने वाले सुखदुःखकी सत्तावाले को [न हंतव्वा] दंडे आदि से न हणे [ण अजा एयव्वा] इन को मारने के लिए आज्ञा न दें [न परिघेत्तव्वा] ये भृत्यादि मेरे अधीन । हैं, ऐसा समझ कर उन्हें दास न बनावे [न परितावेयव्वा] अन्नादि की रुकावट कर पीडा न पहुंचावे [न उवद्दवेयव्या] इनका विष शस्त्रादि से प्राणवियोग न करे करावे 1 [एस धम्मे] सभी जीवों के घात का निषेधात्मक यही धर्म [सुद्धे] पापानुबंध से रहित । . होने से शुद्ध माने निर्मल हैं, [णिइए] अविनाशी है शाश्वत गतिवाला है [लोयं समिच्च] समस्त जीवों को दुःखो के जान कर दुःखानल से तप्त लोकों को केवलज्ञान से । प्रत्यक्ष कर [खेयन्नेहिं पवेइए] कहा है [तं जहा] वह इस प्रकार है-[उट्रिएसु वा] धर्मा8 चरण के लिये उद्यमशील हो ऐसे के लिये [अणुट्टिएसु वा] उद्यमशील न , ॥५०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy