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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४९५॥
वर्णनम्
वस्त्र धारण किए हुए, यज्ञोपवीत से शोभित बायें कंधेवाले और यशोगान करनेवाले IN यज्ञवाटकं
परित्यज्याअपने पांचसौ शिष्यों के साथ वह इन्द्रभूति भगवान् के समीप चले। उस समय उनके
न्यत्र शिष्य उनको जय-जयकार कर रहे थे। शिष्य इस प्रकार यशोगान कर रहे थे-'हे सर- देवगमनात्
तत्रस्थितास्वती रूपी आभूषण कंठ में धारण करनेवाले ! हे प्रतिवादियों पर प्राप्त की जानेवाली
नामाश्चर्याविजय रूपी लक्ष्मी की पताका के समान । अर्थात् प्रतिवादियों का पराभव करने में दिकअग्रगण्य । हे वादियों के मुख रूपी कपाट को बंद कर देनेवाले ताले । अर्थात् वादियों की बोलती बंद कर देनेवाले । हे प्रतिवादी रूपी मदोन्मत्त हाथियों के कुंभस्थलों को || विदारण करनेवाले सिंह। हे प्रतिवादियों के ऐश्वर्य-विद्वानों में अग्रगण्यता रूपी | सागर को एक ही चुल्लू में सोख जानेवाले अगस्ति अर्थात् दुर्दान्त वादियों को अनायास ही-चुटकियों में जीतनेवाले । हे वादियों रूपी सिंहों के पराक्रम को नष्ट करनेवाले अष्टापद । वादियों को परास्त करदेने में दक्ष । हे वादी रूपी लुटेरों का दमन
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