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कस्पसत्रे सशब्दार्थ
॥४९३॥
यज्ञवाटकं परित्यज्यान्यत्र देवगमनात् तत्रस्थितानामाश्चर्या
त्याग कर उस पाखण्डी के पास जा रहे हैं। निश्चय ही इन देवों की मति भी विपरीत हो गई है। ये देव गंगा आदि तीर्थों के जल को त्याग कर तुच्छ खड्डे के पानी की कामना करनेवाले काकों के समान यज्ञभूमि को छोड उस धूर्त के पास जा रहे हैं। और ये देव जलकी उपेक्षा करके स्थल की इच्छा करनेवाले मेढकों के समान, श्रीखंड | आदि चन्दन की अवहेलना करके दुर्गंध को पसंद करनेवाली मक्खी के समान, तथा आम्रवृक्ष को छोडकर बबुल की अभिलाषा करनेवाले, ऊंटों के समान तथा दिवाकर के आलोक की अवहेलना करनेवाले उल्लुओं के समान मालूम होते हैं, जो इस यज्ञस्थान को छोडकर इस मायावी के पास जा रहे हैं। सच है जैसा देव वैसे ही उसके पूजारी होते हैं। निस्सन्देह ये देव नहीं, देवाभास हैं-देव जैसे प्रतीत होनेवाले कोई |
और ही हैं। भ्रमर आम्र की मंझरी पर गुनगुनाते है, परन्तु काक नीम के पेड को ही पसंद करते हैं। खैर, देवों को उस छलियों के पास जाने दो, पर मैं उस छलिया के
वर्णनम्
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