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यज्ञवाटक
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परित्यज्यान्यत्र देवगमनात् तत्रस्थिता
नामाश्चर्या
दिकवर्णनम्
कल्पसूत्रे - किमयंति चगियचित्तो संजाओ] वहां पहुंच कर लोकोत्तर विभूति को और प्रभु के तेज | सन्दाय को देखकर चकित रह गये । सोचने लगे-यह क्या ? ॥११॥
भावार्थ-जब वे पूर्वोक्त वचन आपस में कह रहे थे, उसी समय बीच सपरिवार और विमानों पर आरूढ वे आते हुए देव यज्ञभूमि को लांघकर आगे चले गये। यह देखकर वे यज्ञकर्ता ब्राह्मण स्तब्ध सन्न रह गये, तेजोहीन हो गये। उनके मुख और | नेत्र कुम्हला गए। उनके घहेरे पर दीनता झलकने लगी। मुख फीका पड गया। जब ब्राह्मण इस प्रकार खेद खिन्न हो रहे थे, उसी समय आकाश के मध्य में देवोंने उच्च खर से घोषणा की। वह घोषणा क्या थी, सो कहते हैं-'भो भव्य जीवो! तुम प्रमाद का परित्याग करके, मोक्ष रूपी नगरी के लिए सार्थवाह के समान श्री वर्द्धमान भगवान् को आकर भजो, इनकी सेवा करो। यह श्री वर्धमानस्वामी त्रिलोक के कल्याण| कारी हैं, मनुष्यों के उद्धार के मार्ग का उपदेश देने रूप उपकार करना ही इनका
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