SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥४९०॥ वादिकं कृष्ण ! [वाइहरिणमिगारि !] हे वादी रूपी हरिणों के सिंह ! [वाइज्जरजरंकुरण !] हे वादी रूपी ज्वर के लिए ज्वरांकुश ! [वाइजूइमल्लमणी !] हे वादिसमूह को पराजित करनेवाले श्रेष्ठ मल्ल ! [वाइहिययसल्लवर !] हे वादियों के हृदय में चुमनेवाले तीखे शल्य ! [वाइसलहपजलंतदीवग !] हे वादी रूपी पतंगों के लिए जलते दीपक [वाइचक्कचूडामणि ! ] वादिचक्र चूडामणि ! [पंडियसिरोमणी ! ] पण्डित शिरोमणि ! [विजियाणेगवाइवाय !] हे अनेकवादियों के वाद को विजय करनेवाले ! [लद्धसरस्सइ सुप्पसाथ !] हे सरस्वती का सुप्रसाद पानेवाले [दूरीकयावरगव्वुमेस !] हे अन्य विद्वानों के गर्व की वृद्धि को दूर कर देनेवाले [इच्चाहज सं गायंतेहिं पंच सयसीसेहिं परिवुडो जयजयसदेहिं संदिज्जमाणो पहुसमीवे समणुपत्तो ] इस प्रकार पांचसौ शिष्यों द्वारा किये जाते यशोगान और जयजयकार के साथ इन्द्रभूति भगवान् के पास पहुंचे । [तत्थ गंतूण सो समोसरणसमिद्धिं पहुतेयं च विलोइय यज्ञवाटकं परित्यज्या न्यत्र देवगमनात् तत्रस्थिता - नामाचर्या - दिकवर्णनम् ॥४९० ॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy