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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४८५॥ सबसे पहले गौतम गोत्रीय इन्द्रभूतिनामक ब्राह्मण रुष्ट हुए, क्रुद्ध हुए, लाल हो उठे और | यज्ञवाटकं परित्यज्यामिसमिसाते हुए इस प्रकार बोले-[अम्हंमि विज्जमाणे अन्नो को इमो पासंडो समा- | न्यत्र . सियवियंडो]-मेरे मौजुद रहते, दूसरा कौन है यह पाखण्डी और वितंडावादी [जो | देवगमनात् तत्रस्थिताअप्पाणं सव्वाणुं सव्वदरिसिं कहेइ,] जो अपने आपको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहता है ? | नामाश्चर्या[न लज्जेइ सो ?] लोगों के सामने ऐसा कहते उसे लज्जा नहीं आती? [दीसइ, इमो | दिक वणनम् को वि धुत्तो कवडजालियो इंदजालिओ] प्रतीत होता है, यह कोई धूर्त कपट जाल रचनेवाला इन्द्रजालिक है। [अणेण सव्वणुत्तस्स आडंबरं दरिसिय इंदजालप्पओगेण देवा वि वंचिया] इसने सर्वज्ञता का आडम्बर दिखाकर, इन्द्रजाल का प्रयोग करके, देवों को भी ठग लिया है [जं इमे देवा जपणवाडं संगोवंगवेयण्णुं मं च परिहाय तत्थ गच्छंति] इसीसे ये देव यज्ञपाडे को और सांगोपांग वेदों के वेत्ता मुझ को छोडकर वहां जा रहे हैं। [एएसिं बुद्धि विपज्जासो जाओ] निश्चय ही इन देवों की मति विप ॥४८५||
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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