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________________ यज्ञवाटकं परित्यज्या देवगमनात् तत्रस्थितानामाश्चर्यादिकवर्णनम् कल्पसूत्रे । रीत हो गई है [जे णं इमे तित्थजलं चइय गोप्पयजलमभिलसमाणा वायसा विव] समन्दाय ये देव तीर्थजल को छोडकर तुच्छ गड्ढे के पानी की इच्छा करनेवाले कौओं ॥४८६॥ ॥ की तरह [जलं चइय थलमभिलसमाणा मंडूगाविव] जल को छोडकर स्थल की अभि लाषा करनेवाले मेढकों की तरह [चंदणं चइय दुग्गंधमभिलसमाणा मक्खियाविव] चन्दन को त्याग कर दुर्गन्ध की अभिलाषा रखनेवाली मक्खियों की तरह [सहयारं चइय बब्बूरमभिलसमाणा उद्दाविव] आम को त्याग कर बबूल की अभिलाषा करनेवाले ऊंटों की तरह [सुज्जपगासं चइय अंधयारमभिलसमाणा उलूगाविव] सूर्य के प्रकाश को छोडकर अंधकार की इच्छा करनेवाले उल्लूओं की तरह [जन्नवाडं चइय धुत्तमुव गच्छंति] यज्ञस्थान को त्याग कर धूर्त के पास जा रहे हैं। [सच्चं जारिसो देवो तारिसा {} चेव तस्स सेवगा] सच है जैसा देव वैसे ही उसके सेवक होते हैं [णो णं इमे देवा । देवाभासा एव] निस्संदेह ये देव नहीं किन्तु देवाभास है [भमरा सहयारमंजरीए ॥४८६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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