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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥४८४॥ उनके नेत्र और मुखरूपी कमल मुरझा गये, [दीणविवण्णवयणा संजाया ] मुख पर दैन्य और फीकापन आगया । [ एत्थंतरे अंतरा आगासंसि देवेहिं घुटं, तं जहा - ] इसी समय आकाश में देवों ने घोषणा की - [भो भो पमायमवहूय ] हे भव्य जीवो ! तुमप्रमाद का त्याग करके [निव्वुइपुरिं पइ सत्थवाहं एणं आगच्च भएह ] मोक्ष रूपी नगरी के लिए सार्थवाह के समान श्रीवर्धमान भगवान् को आकर भजो, इनकी सेवा करो [जोणं जगत्तयहिओ सिरि वद्धमाणो] ये श्रीवर्द्धमान स्वामी त्रिलोक के कल्याणकारी हैं । [लोगोवयारकरणे गवओ जिणिदो] मनुष्यों के उद्धार के मार्ग का उपदेश देनेरूप उपकार करना ही इनका प्रधान नियम है । ये रागद्वेष जीतनेवाले सामान्य केवलियों के स्वामी हैं । [ एवं सोच्चा खणमित्तं ऊससिय] यह सुनकर क्षणमात्र ठंडी श्वास लेकर [पुव्वंताव गोयमगोत्तो इंदभूईनामं माहणो रुट्ठो आसुरत्तो मिसिमिसेमाणो एवं वयासी - ] यज्ञवाटकं परित्यज्या न्यत्र देवगमनात् तत्रस्थिता - नामाचर्या - दिक वर्णनम् 1182811
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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