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कल्पयो
सशब्दार्थे ॥४८३॥
न्यत्र
वर्णनम्
वाइवच्छन्मूलणवारण वाइदइच्च देववई ! वाइसासणनरेस ! वाइकंसकंसारी ! यज्ञवाटकं
परित्यज्यावाइहरिणमिगारि ! वाइज्जरजरंकुरण ! वाइजूइमल्लमणी ! वाइहिययसल्लवर!
देवगमनात् वाइसलहपज्जलंतदीवग! वाइचक्कचूडामणि ! पंडियसिरोमणी ! विजियाणेगवाइ
Mतत्रस्थितावाय! लद्धसरस्सइसुप्पसाय! दूरिकयावरगव्वुमेस! इच्चाहजसं गायंतेहिं पंच- नामाश्चर्यासयसीसेहिं परिखुडो जयजय सद्देहिं सदिजमाणो पहुसमीवे समणुपत्तो तत्थ गंतूण सो समोसरणसमिद्धिं पहुतेयं च विलोइय कियंति चगियचित्तो संजाओ॥११॥ ___ शब्दार्थ-[एवं परोप्परं कहमाणेसु समाणेसु एत्यंतरे ते देवा जन्नवाडयं चइय अग्गेपट्टिया] वे परस्पर इस प्रकार कह ही रहे थे कि इस बीच वे देव यज्ञस्थान को छोड कर आगे चले गये [तं दणं ते जन्नजाइणो माहणा निक्कंपा नित्तेया ओमंथियवयणनयणकमला] यह देखकर याज्ञिक ब्राह्मण स्तब्ध रह गये, निस्तेज रह गये,
॥४८३॥