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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ||४७८|| ग्रहण करने के लिये अपने अपने विमानों [निय निय इड्ढीमाइहिं सक्खं समावयंति ] और अपनी अपनी ऋद्धि के साथ साक्षात् आरहे हैं । [तत्थट्टिया लोया अच्छेरयमणुभवि एवं वसु - ] वहां जो लोग उपस्थित थे, वे यह आश्चर्य देखकर बोले- [जं इमे . माहणा धण्णा कयकिच्चा कयपुण्णा कयलक्खणा य जेसिं जन्नवाडे देवाय देवीओ यसक्खं समावजंति] ये ब्राह्मण धन्य हैं, पुण्यवान् हैं और सुलक्षण हैं जिनके इस यज्ञपाटक में साक्षात् देव और देवियों का आगमन हो रहा है ॥१०॥ भावार्थ - विराजमान भगवान् के दर्शन के लिए तथा धर्मदेशना श्रवण करने लिए भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषिक और विमानवासी देव और देवियों के झुंड के झुंड अपने अपने परिवार के साथ समस्त ऋद्धि से सर्वद्युति से सब प्रकार के विमानो की दतियां से दिव्य शोभाओं से शरीर पर धारण किये हुए सर्व प्रकार के आभूषणों के तेज की ज्वालाओं से शरीर सम्बधि दिव्य प्रभाओं से दिव्य शरीर की कांतीयों से सोमिला भिध ब्राह्मणस्य यज्ञवाटके देवागमन कल्पनम् ॥४७८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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