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सोमिला
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४७७॥
भिध
ब्राह्मणस्य यज्ञवाटकेदेवागमन कल्पनम्
[सव्विड्डीए सव्वजुईए पभाए छायाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए] सम. | स्त ऋद्धि से सर्व द्युति से प्रभा से शोभाओं से, शरीर पर धारण किये हुए सब प्रकार | के आभूषणों के तेज की ज्वालाओं से शरीर सम्बन्धी दिव्य प्रभाओं से दिव्य शरीर
की कन्तियों से [दसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा समावयंति] दशदिशाओं को उद्योतित करते हुए विशेष रूप से प्रकाशयुक्त होकर आते हैं [ते दळूणं जन्नवाडट्रिया जन्नजाइणा सव्वे माहणा परोप्परं एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूविति-] उन्हें देखकर यज्ञ स्थल में स्थित यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले सभी ब्राह्मण | आपस में इस प्रकार कहने लगे, इस प्रकार भाषण करने लगे, इस प्रकार प्रज्ञापन करने लगे और इस प्रकार परूपणाकरने लगे-[भो भो लोया! पासन्तु जन्नप्पभावं जेणं इमे देवा य देवीओ य जन्नदंसणटुं हविगहणटुं च निय निय विमाणेहि] हे महानुभावो! | देखो यज्ञ के प्रभाव को, यह देव और देवियां यज्ञ को देखने के लिये और हविष्य को
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