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________________ कल्पयत्रे सशन्दायें भगवतोधर्मदेशना आश्चर्यप्रकटनं च ॥४५२॥ दिसीभाए सव्योउय पुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे महासेणं णामं । उज्जाणे होत्था। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे महासेणे उज्जाणे समोसढे ॥७॥ - शब्दार्थ-[तए णं से समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्ख] उसके बाद उन उत्पन्न ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले श्रमण भगवान् महावीरने आत्मा को और लोक को परिपूर्ण और यथार्थ रूप से जानकर [जोयणवित्थारणीए सयसयभासा परिणामिणीए वाणीए पुव्वं देवाणं पच्छा मणुस्साणं धम्ममाइक्खइ] एकयोजन तक फैलनेवाली और श्रोताओं की अपनी अपनी भाषाओं में परिणत हो जानेवाली वाणी से, देवों को धर्म का उपदेश दिया [तत्थ भगवओ सा धम्मदेसणा तित्थयरकप्पपरिपालणाए जाया] वहां भगवान् की वह देशना तीर्थकरों के कल्प का पालन करने के लिए ही हुई [न केवि तत्थ विरई पडिवण्णा] वहां किसी । ॥४५२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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