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भगवतः
सरणम्
कल्पसूत्रे ।। जैसा श्वासोच्छ्वास रहता है ५. उनका आहार नीहार चर्मचक्षुवाले नहीं देख सकते ।।
समवसशब्दार्थे हैं [इन पांच में से पहिला छोडकर अन्य चार अतिशय जन्म से ही होते हैं ६. ॥४३४॥
जिनका धर्मचक्र आकाश में चलता रहे ७. आकाश में छत्र रहे ८. श्वेत चामर आकाश में रहे । ९. आकाश समान निर्मल स्फटिकरत्न मय पादपीठिका सहित सिंहासन रहता है १०. अन्य हजारों लघु पताकाओं से परिमंडित अत्यंत ऊंची आकाश-ध्वजा तीर्थकर की आगे चलती है ११. जहां जहां भगवंत खडे रहे अथवा बैठे वहां २ पत्र से आर्कीण व पुष्प फल से व्याप्त, ध्वजा पताका व घंटा सहित अशोक वृक्ष छाया कर रहते हैं १२. पृष्ट भाग में थोडासा दूर मुकुट के स्थान तेजमंडल [प्रभामंडल] होता है जो दशों दिशाओं में अंधकार का नाश करता है १३ जहां २ तीर्थंकर भगवंत विहार करते हैं वहां २ बहुत रमणिय भूमिभाग होता, है १४. जिस जिस मार्ग में । तीर्थकर विहार करते हैं उस मार्ग में पडे हुवे कंटक ऊर्ध्व मस्तक हो वह अधोमुख हो जाते ॥४३४॥