SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्र सशब्दार्थे ॥४३५॥ SESAMAY भगवतः समच सरणम् हैं १५ ऋतुविपरीत सुखस्पर्श वाली होवे अर्थात् ऊष्ण काल में शीतलता व शीतकाल में ऊष्णता होवे १६. सुख स्पर्शवाला सुगंधी वायु से एक योजन मंडलाकार सब दिशाकी भूमि स्वच्छ होवे १७ जिस मार्ग में तीर्थंकर विहार करते हैं उस मार्ग में सूक्ष्म २ बिन्दुयुक्त वर्षा से आकाश की व जमीन की रजरेणु दूर करे १८ बहुत सुगंधित व तेजवंत जल में उत्पन्न होने वाले कमलादि व स्थल में उत्पन्न होने वाले ऊर्ध्व मुख होकर जमीन पर रचना होना अठारवां अतिशय हुआ। १९ अमनोज शब्द, स्पेश, रस रूप गंध का अभाव होवे । २० मनोज्ञ शब्द वर्ण गंध रस व रूप प्रगट होवे २१ उपदेश देते भगवंत की वाणी हृदयंगम, मनोज्ञ व चोजन तक सुन सके ऐसी होती है २२ भगवंत छः भाषा में धर्मोपदेश करते हैं २३ वहीं अर्धमागधि भाषा सर्व आर्य, अनार्य देशवाले मनुष्य, और चतुष्पद सो-गवादि मृगादि खेचर भुजपरिसर्प वगैरह सब मोक्ष रूप सुख व आनंद प्राप्त करे व इस तरह परिणयति वाली है २४ भवान्तर सो अनादि ४३५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy