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________________ कल्पमत्रे सभन्दा ॥४३१॥ भगवतः समयसरणम् य गमणीओ जोयणहारी सरो] उपदेश करते समय भगवान् की एक योजन गामी हृदय प्रिय वाणी का होना २१ [भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ] सुकोमल होने से आर्द्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्मोपदेश होना २२ [सा वि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पयचउप्पय मियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हियसिव सुहयभासत्ताए परिणमइ] प्रभु के द्वारा उच्चरित की गई उस अर्द्धमागधी भाषा का आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद आदि सबके लिये अपनी २ भाषा के रूप में हित, शिव, और सुखद स्वरूप से परिणमन होना २३ [पुव्ववद्ध वेरा वि य णं देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिनरकिंपुरिस | गरुलगंधव्वमहोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति' देव असुर आदि प्राणियों का गंधर्व और महोरगों का एक स्थान पर बैठ कर वैरभाव का परित्याग कर प्रसन्न चित्त से प्रभुकी वाणी का सुनना २४ [अन्नउत्थिय पावणिया वि ॥४३॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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