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________________ समवसरणम् कल्पसूत्रे । होना १५ [सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारूएणं जोयणपरिमंडलं सव्वओ समंता.. भगवतः मभन्दार्थे संपमज्जिजइ] शीतल सुख स्पर्श और सुगन्धित वायु का चलना, और उससे एक.. ॥४३०॥ योजन तक के क्षेत्र को सब ओर से अच्छी तरह कचवरादि से रहित होना १६ [जुत्त फुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणुयं किज्जइ] छोटी-छोटी बिन्दुओं वाले अचित्त पानी की वृष्टि से एक योजन पर्यन्त जमीन की रज और धूली का बिलकुल जमजाना १७ [जल य थल य भासुर पभूए णं विंटाइणा दसवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहपमाण । मित्ते पुप्फोवयारे किज्जइ] जानुत्सेध प्रमाण अचित्तपांच वर्ण के सुशोभित नीचे वृन्त- ।.. वाले पुष्पोपचार-पुष्पों का ढेर होना १८ [अमणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवइ] अमनोज्ञ प्रतिकूल शब्द, स्पर्श रस और गंध का दूर होजानाअर्थात् नही-होना १९ [मणुण्णाइं सदफरिसरसरूवगंधाणं पाउन्भवो भवइ] मनोज्ञ, शब्द, स्पर्श रस और गंध का प्रादुर्भाव होना २० [पच्चाहरओ वि य णं हिय .
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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