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________________ समव सभन्दा कल्पस्त्रे पुरओ गच्छइ] आकाश गत हजारों छोटी छोटी पताकाओं से युक्त इन्द्र ध्वज का भगवतः । प्रभु के आगे-आगे चलना १० [जत्थ-जत्थ वि य णं अरहंता भगवंता चिटुंति वा सरमम् ॥४२९॥ निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि य णं तक्खणादेव सैछन्नपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो संच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ] जहां जहां अहंत भगवंत ठहरे अथवा बैठे, वहां-वहां-नियम से उसी क्षण में सघन पत्र, पुष्प और न पल्लव से युक्त छत्र, ध्वजा, घटा और पताका सहित अशोक वृक्षका होना ११ [इसिपि । ढओ मउडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजायइ अंधयारे वि य णं दसदिसाओ पभासेइ] मस्तक के पीछे दस दिशाओं को प्रकाशित करने वाले तेजोमंडल-भामंडल का होना १२ [बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे] बहु सम-अत्यन्त समतल भूमि भाग का IN होना १३ [अहोसिरा कंटया जायंति] भगवान् के मार्ग में कंटकों का अधो मुख होना | १४ [उऊ विवरीया सुहफासा भवंति] विपरीति ऋतुओं का भी सुख स्पर्श से युक्त ॥४२९॥ .. . . . .. .. . ........ ..
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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