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________________ समव कन्पाने ! [चोत्तीसं अइसेसा] चौतीस अतिशय प्रगट हुए। [तं जहा] जो इस प्रकार से हैं-[आवदिए. भगवतः; सशन्दार्ये ॥४२८॥ .. केसमंसु रोमनहे] केश दाढी, रोम और नखों का नहींबढना,१ [निरामया निरूवलेवा, सरणम् गायलही] रोग रहित एवं मललेपरहित शरीर का होना २ [गोक्खीर पंडुरमंससोणिए] गोक्षीर के समान श्वेत मांस और शोणित का होना ३[पउमप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे] पद्म और उत्पल की गंध के समान सुगन्धवाला श्वासोच्छ्वास का होना ४ [पच्छन्ने ! आहार नीहारे आदिस्से मंसचक्खुणा] चर्म चक्षुओं से आहार और नीहार-मल-मूत्र -का परित्याग दिखलाइ नहीं देना ५. [आगासगयं चकं] आकाश गत धर्म चक्र का । होना ६ [आगासगयं छत्तं] आकाश गत छत्र का होना ७ [आगासगयाओ सेयवर.. चामराओ] आकाश गत सफेद सुन्दर दो चामरों का होना ८ [आगासगयं फलिहामयं । सपादपीढं सीहासणं] आकाश गत स्फटिक रत्नका बना हुआ पाद पीठ सहित । सिंहासन का होना ९ [आगासगओ कुडभीसहस्सपारेमंडियाभिरामो इंदज्झओ ॥ ॥४२८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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