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शक्रेन्द्रक्रत
कस्पसत्रे !
सास - ॥३२॥
तीर्थकर
जन्ममहोत्सवः
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करते हुवे बडे २ नाद से नृत्य गीत, तंतीताल त्रुटित और मृदंग के शब्द से भोग भोगते हुवे विचर रहे हैं । उस समय शक देवेन्द्र का आसन चलायमान होता है, जब शक देवेन्द्र का आसन चलायमान होता है तब शकेन्द्र अवधिज्ञान प्रयुंजते है और अवधिज्ञान से भगवान् तीर्थंकर को देखते हैं देखकर देवेन्द्र शक हृष्टतुष्ट होते हैं, चित्त में आनंदित होते हैं उत्कृष्ट सौम्य मनवाले होते है हर्षवश से हृदय विकसायमान होता है। वृष्टि की धारा से हणाया हुवा कदंब वृक्ष के पुष्प समान विकसायमान होते हैं, विकसित रोमकूप होते हैं, श्रेष्ठ कमल के समान नयन और वदन विकसायमान होते हैं, प्रचलित श्रेष्ठ कडे त्रुटित, केयूर, मुकुट कुंडल व हृदय के हार वगैरह लम्बे लटकते हुए रहते हैं, इस प्रकार के शक देवेन्द्र ससंभ्रांत शीघ्रमेव अपने सिंहासन से उपस्थित होते है फिर वेरुलिय व रिष्टरत्नों से जडित अंजन समान कृष्णवर्ण की उपचित प्रदीप्त मणिरत्नों से मंडित पगरखीयां निकालते है फिर पादपीठ से नीचे उतरकर एक वस्त्र
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