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कल्पसूत्रे
1 और भाव से गौरव का त्याग, अनुत्तर सत्य प्राणियों के हितार्थ यथार्थ भाषण, अनु- भगवतोसशन्दार्थ
विहारः तर धर्मध्यान और अनुत्तर आत्मिक परिणाम से अपनी आत्मा को आवित करते हुए ॥४०८॥
महास्वामतथा इस प्रकार के विहार से विहरते हुए भगवान् श्री वीर प्रभु को बारह वर्ष और दर्शनं च तेरह पक्ष व्यतीत हो गये। तेरहवां वर्ष जब चल रहा था, उस तेरहवें वर्ष का उस
समय ग्रीष्म ऋतु का दूसरा मास, चौथा पक्ष-वैशाख शुद्ध पक्ष-अर्थात् वैशाख मास का ॥ शुक्ल पक्ष था, उसकी नौंवी तिथि को जंभिक नामक गांव के बाहर ऋजुपालिका नदी ।
के उत्तर तीर पर सामग नामक गाथापति के खेत में, सालवृक्ष के मूल में अर्थात् मूल के पास के प्रदेश में रात्रि में भगवान् विराजे। उस साल वृक्ष के मूल के नीचे समीपवर्ती प्रदेश में, रात्रि के समय, कायोत्सर्ग में छमस्थ अवस्था की रात्रि के अन्तिम प्रहर में भगवान् आगे कहे जाने वाले दश महास्वप्नों को देखकर जागृत हुए। यथा-१ प्रथम स्वप्न उन दस स्वप्नों में से पहले स्वप्न में एक विशाल तथा भयानक ॥४०८॥