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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
भगवतोविहारः महास्वप्नदर्शनं च
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चन्दनकल्प' थे। तथा भगवान् मिट्टी एवं पाषाण के टुकड़े को तथा सोने को समान . दृष्टि से देखते थे। सुख-दुःख को समान दृष्टि से देखते थे। सुख दुःख को समान समझते थे । इह लोक में यश कीर्ति आदि की तथा पारलौकिक-स्वर्ग आदि के सुखों
की आसक्ति से रहित थे । इहलोक परलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित थे। संसाररूपी | महासमुद्र के पारगामी थे। कर्मों का समूह उन्मूलन करने के लिए उद्यत होकर विचः रते थे। इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को किसी भी स्थान पर प्रतिबंध नहीं था।
अनुत्तर अर्थात् लोकोत्तर तप, सतरह प्रकार के अनुत्तर उत्थान-उद्यम, अनुत्तर कर्म| क्रिया, अनुत्तरबल-शारीरिक शक्ति का उपचय, अनुत्तर वीर्य आत्मार्जित सामर्थ, अनुत्तर पुरुषकार-पुरुषार्थ, अनुत्तर पराक्रम शक्ति, अनुत्तर क्षमा, [सामर्थ्य होने पर भी पर के किये अपकार को सहनकर लेना], अनुत्तर मुक्ति-निर्लोभता, अनुत्तर शुक्ल लेश्या, जीव के शुभपरिणाम, अनुत्तर मृदुता, अनुत्तर लाघव । द्रव्य से अल्प उपधि
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