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कल्पसूत्रे
सशन्दार्थे ॥४०६॥
भगवतोविहारः महास्वामदर्शनं च
'यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ।
शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् । इति। जैसे शिरामोक्ष-चढी हुई नस के उतारने आदि उपायों से रोगी को निरोगी करने वाला उपकारक होता है, उसी प्रकार जो मेरा अपकार करता है, वह वास्तव में उपकार करता है । अथवा बासी अर्थात् अपकारी वसूला के प्रति जो चन्दन के छेद (खण्ड) के समान उपकारी के रूप में वर्ताव करता है, अर्थात् अपकारी का भी उपकार करता है, वासी चन्दनकल्प कहलाता है । कहा भी है
'अपकारपरेऽपि परे कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः ।
सुरभी करोति वासी; मलयजमपि तक्षमाणमपि' ॥१॥ इति । महान् पुरुष, अपकार करने वाले का भी उपकार ही करते हैं। जैसे मलयज चन्दन छीला जाता हुआ भी वसूले को सुगंधित ही करता है । भगवान् ऐसे 'वासी
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