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________________ कल्पसूत्रे I कारणों का संयोग होने पर भी विकार-विहीन चित्तवाले थे । पक्षी के समान सब IPL भगवतो सशब्दार्थे प्रकार के बन्धनों से मुक्त थे। मेरु शैल के समान परीषह और उपसर्ग रूपी पवन विहारः ॥४०५॥ महास्वमा से चलायमान नहीं होते थे। शरदऋतु के जल के समान निर्मल चित्त थे। गेंडा के | दर्शनं च सींग' के समान ये रागादि कों की सहायता से रहित होने के कारण, एक स्वरूप थे। भारंड नामक पक्षी के समान प्रमादरहित थे। हाथी के समान पराक्रमी थे। वृषभ | के समान वीर्यशाली थे । सिंह के समान अजेय थे। पृथ्वी के समान सर्व सह-शीतMail उष्ण-आदि सकल स्पर्शो को सहन करने वाले थे। जिसमें घी की अहुति दी गई हो ऐसी अग्नि के समान तेजोमय थे। वर्षावास-वर्षाऋतु के चार मासों के सिवाय ग्रीष्म और हेमन्त ऋतुओं के आठ महिनों, ग्राम में एक रात और नगर में पांच रात से अधिक नहीं ठहरते थे। भगवान् वासी चन्दन कल्प थे अर्थात् वसूले के समान अर्थात् अपकारी पुरुष को भी चन्दन के समान उपकारक मानते थे । जैसे कहा है ॥४०५
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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