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भगवतोविहारः महास्वप्नदर्शनंच
कल्पसत्रे हित-पड्जीवनिकाय के परिपालक थे। आयजोइए-आत्मज्योतिबाले थे अथवा आत्मसशब्दार्थे । योगिक अर्थात् मन वचन काययोग को वश में करने वाले थे । आत्मबल से सम्पन्न ॥४०४॥
थे। समाधि-मोक्षमार्ग में स्थित थे। कांसे के पात्र के समान स्नेह [राग] से रहित
थे। शंख के समान निमल थे। जीव के समान अकुंठित अबाध गतिवाले थे । उत्तम | स्वर्ण के समान सुन्दर रूप थे। दर्पण-फलक के समान जीव-अजीव समस्त पदार्थो | को प्रकाशिक करने वाले थे। कछुवे के समान इन्द्रियों को वष करने वाले थे । कमल
के पत्ते के समान स्वजन आदि की आसक्ति से रहित थे। आकाश के समान कुल, ग्राम, नगर आदि का आलंबन नहीं लेते थे। पवन के समान घर रहित थे। चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यावाले अर्थात् क्रोधादिजन्य सन्तापसे रहित मानसिक परिणाम के धारक थे। सूर्य के समान दीततेज थे। अर्थात् द्रव्य से शारीरिक दीप्ति से और भाव से ज्ञान से देदीप्यमान थे। सागर के समान गंभीर थे। हर्ष-शोक आदि के
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