SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ST सशब्दार्थे भगवतोविहारः महास्वसदर्शनं च कल्पसूत्रे . प्रतिलेखना तथा प्रमार्जना आदि शास्त्रोक्त क्रियाएं करके ही शयन आसन आदि करना चाहिए । अतः शयन, आसन, निक्षेप, और आदान आदि क्रियाओं में ॥४०२॥ | स्वेच्छापूर्ण चेष्टाओं का परित्याग करके शास्त्रानुसार काय की चेष्टा होना दूसरी !! काय गुप्ति है । कहा भी है 'उपसर्ग प्रसङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निंगद्यते ॥१॥ शयनासननिक्षेपाऽऽदानसंक्रमणेषु च, स्थानेषु चेष्टानियमः, कायगुप्तिस्तु सा परा' ॥२॥ उपसर्ग का प्रसंग होने पर भी कायोत्सर्ग को सेवन करने वाले मुनि के शरीर का स्थिर होना प्रथम कायगुप्ति कहलाती है ॥९॥... भगवान् के गुरु का अभाव था, अतएव उनकी कायगुप्ति गुरू को विना पूछे ही ॥४०२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy