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भगवतो
विहारः
सशब्दाये ॥४००||
महास्वनदर्शनं च
कल्पस्ने । शास्त्र में कहा है।
विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता" ॥१॥ इति । कल्पनाओं के जाल से सर्वथा मुक्त, समत्व में सुप्रतिष्ठित और आत्मरूपी उद्यान में रमण करने वाला मन ही मनोगुप्ति है, ऐसा गुप्ति के ज्ञाताओंने कहा है ॥१॥ भगवान् वचन गुप्ति से भी युक्त थे। वचन गुप्तिचार प्रकार की है। कहा भी है
'सच्चा तहेव मोसा च, सच्चा मोसा तहेव य।।
चउत्थी असच्य भोलाउ, वयगुत्ती चउव्विहा" ॥१” इति । -- (१) सत्यवचनगुप्ति (२) मृषावचनगुपित (३) सत्यामृषावचनगुप्ति (४) चौथा असत्यामृषावचनगुप्ति, इस प्रकार वचन गुप्ति चार प्रकार की है ॥१॥
- इसका अभिप्राय वह है-वचन चार प्रकार का है, जैसे जीव को 'यह जीव है'
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