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कल्पसूत्रे
सशब्दार्थे ॥३९९॥
आहार आदि की गवेषणा में उद्गम आदि ४२ [बयालीस] दोषों का वर्जन करना भगवतो.
विहार एषणासमिति है। भांड-पात्र तथा मात्र-वस्त्र आदि उपकरणों के ग्रहण करने और
महास्वमरखने में अथवा भाण्ड और वस्त्र आदि उपकरणों के तथा अमत्र अर्थात् पात्र के नदर्शनं च आदान-निक्षेप में यतना करना अर्थात् प्रतिलेखनादि पूर्वक प्रवृत्ति करना आदानभाण्डमात्रनिपेक्षणासमिति है । उच्चार-मल, प्रस्रवण मूत्र, श्लेष्म-कफ, शिंघाण- रेट, जल्ल-पसीने का मैल, इन सब के परिष्ठान, परठने में यतना करने को उच्चारप्रस्त्रवणश्लेष्मशिंधाणजल्लपरिष्टापनिकासमिति कहते हैं। भगवान् मनोगुप्ति से युक्त थे। मनोगुप्ति तीन प्रकार की है-(१) आतध्यान और रौद्रध्यान संबंधी कल्पनाओं का अभाव होना । (२) शास्त्र के अनुकूल परलोक को साधने वाली, धर्म ध्यान के अनुकूल मध्यस्थ भाव रूप परिणति, (३) समस्त मानसिक वृत्तियों के निरोध से, योगनिधान की अवस्था में उत्पन्न होने वाली आत्मरमणरूप प्रवृत्ति । योग
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