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________________ कल्पसूत्रे नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं सव्वओ समंता आवेढियपरिवेढियं] पिंगलवर्ण । भगवतो- ... विहारः सशब्दार्थे 6 की हरि मणि और नील वर्ण के नीलम की आभा के समान कान्तिवाली अपनी l महास्वन१ ॥३९८॥ आंत से महान् मानुषोत्तर पर्वत को सब ओर से वेष्टित और परिवेष्टित [एगं च णं दर्शनं च महं मंदरे पव्वए मंदरचूलियाए उवरिं सींहासणवरगयं अप्पाणं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे] मेरु पर्वत पर मंदर चूलिका के उपर अपने आपको एक श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा देखा । स्वप्न देखकर भगवान् जागृत हुए ॥५९॥ भावार्थ-उस समय भगवान् महावीर ईर्यासमिति, भाषा समिति, एषणासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चार प्रस्त्रवणश्लेष्मसिंघाणजल्लपरिष्ठापनिकासमिति से युक्त थे, तथा मनोति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से सम्पन्न थे, गुप्त थे, और गुप्तेन्द्रिय थे । प्राणियों की रक्षा करते हुए यतनापूर्वक चलना ईर्या समिति है। निर्दोष वचनों का प्रयोग करना भाषा समिति है। एषणा में अर्थात् ॥३९८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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