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________________ भगवतो. विहारः महास्वसदर्शनं च कल्पसूत्रे | घोरदित्तस्वधरं तालपिसायं पराजियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे] एक महान् घोर सशब्दार्थे | दीप्त रूप धारी तालपिशाच को स्वप्न में पराजित देखकर जागे [एवं एगं च णं ॥३९७॥ महासुकिल्लपक्खगं पुंसकोइलं] इसी प्रकार एक अत्यन्त सफेद पंखों वाले पुरुष जातीय कोकिल को देखकर जागृत हुए। [एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंस कोइलं] एक विशाल चित्र विचित्र पंखों वाले पुरुष कोकिल को देखा [एगं च णं महं दामयुग सव्वरयणामय] एक बडा सर्व रत्नमय माला युगल देखा [एगं च णं महं | सेयं गोवग्गं] एक विशाल श्वेत गोवर्ग देखा [एगं च णं महं पउमसरं सव्वओ समंता कुसुमियं] सब तरफ से पुष्पित एक पद्म युक्त विशाल सरोवर देखा [एगं च णं महं सागरं उम्मिवीइसहरसकलियं भुयाहिं तिण्णं] एक हजारों तरंगों से युक्त महान् समुद्र को अपनी भुजाओं से पार करते देखा [एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं] एक महान् तेज से जाज्वल्यमान सूर्य को देखा [एगं च णं महं हरिवेरुलियवन्नाभेणं | ॥३९७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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