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________________ P सशन्दा भगवतोविहारः महास्वम। दर्शनं च कल्पसूत्रे । तीय-एक जन्म लेनेवाले [भारंडपक्खीव अप्पमचे] भारण्डपक्षी की तहर अप्रमत्त [कुंजरो इव सोंडीरो] हाथी के समान वीर [वसभो इव जायत्थामे] बैल की तरह वीर्यवान [सीहो ॥३९४॥ २१ | इव दुद्धरिसे] सिंह के समान अजेय [वसुंधरेव सव्वफाससहे] पृथ्वी के समान समस्तस्पों को सहनेवाले [सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलंते] अच्छी तरह होमी हुई अग्निके समान तेज से जाज्वल्यमान [वासावासवजं अट्ठसु गिम्हहेमंतिएसु मासेसु गामे गामे एगरायं णयरे णयरे पंचरायं] वर्षाकालके शिवाय ग्रीष्म और हेमंत के आठ महिनों में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि तक रहने वाले [वासी चंदणकप्पे] वासीचन्दन के समान [समलेट्रकंचणे] मिट्टी और स्वर्ण को एक दृष्टि से देखने वाले [सम सुहदुहे] सुख दुःख में समान दृष्टि वाले [इहलोग परलोग अप्पडिबद्धे] इहलोक और परलोक में अनासक्त [अपडिण्णे] कामना रहित [संसारपारगामी] संसारपारगामी [कम्मणिग्घायणटाए अब्भुट्टिए विहरइ] और कर्मों को नष्ट करने के लिए पराक्रम शील होकर ॥३९४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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