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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥३९३|| भगवतो|विहारः महास्वनदर्शनं च तोए] कांसे के पात्र के समान स्नेह रहित [संखइव निरंजणे] शंख के समान निरंजन [जीवो इव अप्पडिहय गई] जीव के समान अप्रतिबद्ध गतिवाले [जच्चकणगं विव जायरूवे] उत्तम स्वर्ण के समान देदीप्यमान [आदरिस फलगमिव पागडभावे] दर्पण के समान तत्वों को प्रकाशित करनेवाले [कुम्मोव्व मुर्तिदिए] कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय [पुक्खर पत्तंब निरुवलेवे] कमल पत्र के समान निर्लेप [गगणमिव निरालंबणे] आकाश के समान आलंबन रहित [अणिलोव्व निरालए] पवन के समान घर रहित [चंदोइव सोमलेस्से] चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यावाले [सूरोइव दित्ततेए] सूर्य के समान तेजस्वी [सागरो इव गंभीरे] समुद्र के समान गम्भीर [विहगो इव सव्वओ विप्पमुक्के] पक्षी की तरह सर्वथा बन्धन रहित [मंदरो इव अकंपे] | मेरू पर्वत की तरह अकंप [सारयसलिलंव सुद्धहियए] शरद ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदयवाले [खग्गिविसाणंव एग जाए] गैंडे के शिंगके समान अद्वि ॥३९॥ HAI HETAIL.. .
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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