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शब्दार्थे
॥३८७॥
कि कानों में कीलें ठोंकी हुई है और वह कीलें निकल भी न सकें । भगवान् ने अठा रहवें भव में जो कर्म बांधे थे, उनका यह फल था । उस भव में वह त्रिपृष्ठ वासुदेव . थे । उन्होंने शय्यापालक के कानों में उकलता हुआ शिशे का रस डलवाया था । वही कर्म अब उदय में आया ।
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दुष्टाशय वह गुवाल उस स्थान से निकलकर दूसरी जगह चला गया । भगवान् वीर प्रभु ने षण्मानिक ग्राम से निकलकर मध्यपावा नामक नगरी में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए अनुक्रम से सिद्धार्थ नामक सेठ के घर में प्रवेश किया । सिद्धार्थ सेठ के घर खरक नामक वैद्य किसी प्रयोजन से आया था । उसने प्रभु को देखकर जान लिया कि इनके कानों के अन्दर किसी दुर्जन ने कीलें ठोंक दी हैं। कीलें ठोकने के कारण भगवान्ं अनुपम और दुस्सह वेदना का अनुभव कर रहें हैं। खरक वैद्यने यह बात सिद्धार्थ सेठ से कही । भगवान् भिक्षा ग्रहण करके उद्यान में चले गये ।
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अंतिमो
पसर्ग निरूपणम्
॥३८७॥