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________________ Com कल्पसूत्रे संशब्दाथे ॥३८५॥ जणदुरहियास वेयणं सम्म सहीअ] तथापि चरम शरीर और अनन्तबली होने के कारण Iअंतिमो पसर्ग भगवान् ने उस जाज्वल्यमान तीव्र घोर और कायर जनों द्वारा असह्य वेदना को निरूपणम् सम्यक् प्रकार से सह लिया [तए णं से सेटी विजो य ओसहोवयारेण तं नीरुयं काउं सयं गिहं गमीअ] उसके बाद वह सेठ और वैद्य औषधोपचार से भगवान् को निरोग | करके अपने घर गये। [तेण कुकिच्चेण गोवालो मरिअ नरयं गओ] उस कुकृत्य से | गुवाल मरकर नरक में गया [सेठो विज्जो य तेण सुहकम्मुणा बारसमे कप्पे उबवन्ना इइ गंथंतरे] तथा सेठ और वैद्य उस शुभ कर्म के कारण से बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए ॥५८॥ ___ भावार्थ-तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान् महावीर कोशाम्बी नगरी से विहार किये और विहार कर जनपद-देश में विचरने लगे । तत्पश्चात् भगवान् वीर प्रभु बारहवें चौमासे में चम्पानगरी में विराजे और चार मास की तपस्या की। चौमासा | ||३८५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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