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अंतिमो
कल्पसूत्रं
पसर्ग
निरूपण
||३८४॥
के घर में प्रविष्ट हुए [तत्थ णं खरगाभिहो विज्जो अच्छइ] वहां खरक नामक एक सशब्दार्थे
वैद्य था [सोय पहुं दई जाणीअ जं एयरस कपणेसु केणवि सल्लाइं निखायाइं] उसने प्रभु को देखकर जान लिया कि इन के कानों में किसी ने कीलें ठोंक दी हैं, [तेणं एस पहू अउलं वेयणं अनुभवइ ति] इस कारण प्रभु को अतुल वेदना का अनुभव
हो रहा है [तए णं सो विज्जो सेटुिं कहीअ] तब उस वैद्य ने सेठ से कहा [पहूय गहिय । भिक्खे उज्जाणं समणुपत्ते] भगवान् भिक्षा ग्रहण करके उद्यान में आगये [सो सेट्टी विज्जो य उज्जाणे गमिय काउस्सग्गट्रियस्स पहुस्स कण्णेहिंतो महईए जुत्तीए ताई सल्लाइं निस्साति] सेठ ने और वैद्य ने उद्यान में जाकर कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु के कानों में लगी हुई कीला को बडी युक्ति से निकाल दिया [जइ वि कीलगुद्धरणे पहुस्स दुस्सहा वेयणा संजाया] यद्यपि कीलों के निकालने से प्रभु को दुस्सह वेदना हुई [तहवि भगवं चरिमसरीरतणेण अणंतबलसणेण य तं उज्जलं तिव्यं घोरं कायर
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