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________________ कल्पमत्रे सशब्दार्थे ॥३५६॥ अभिग्रहार्थमटमाणस्य - भगवतविषये लोक वित 1) कर्कादिकम् tel तो मुझ पर दया करके इसे स्वीकार कर लीजिये। तब भगवान् ग्रहण किये हए तेरह | बोलों में से बारह बोलों को पूर्ति हुई देखते हैं, सिर्फ बहते आसु जो तेरहवां वोल था उसे नहीं देखते । अतएव भगवान् वीर स्वामी यहां से लौटने लगते हैं । भगवान् को लौटते देखकर चंदनबाला मन में विचार करती है-भगवान् वीर प्रभु यहां पधारे और आहार ग्रहण किये बिना ही लौट गये । न जाने क्या मैंने पाप-कर्म किया है, जिसका ऐसा | अशुभ फल उदय में आया है ! मैं कैसी अधन्य हूं, पुण्य हीन हूं, अकृतार्था हूं ! मैंने पुण्य-उपार्जन नहीं किया ! मैं सुलक्षणी नहीं हूं। मैंने कोई वैभव नहीं पाया। मुझे जन्म का और जीबन का कैसा दुष्फल मिला है ! जिससे कि मुझे ऐसी दुःख-परम्परा की उपलब्धि हुई, प्राप्ति हुई और दुःखपरम्परा ही मेरे सन्मुख आई ! अष्टमभक्त के पारणे के अवसर पर ऐसे अत्यंत दुष्कर अभिग्रह को धारण करने वाले महामुनि महावीर प्रभुश्री आहार लिये विना ही वापिस लौट गये, सो मैं समझती हूं कि घर ॥३५६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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