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- कल्पसूत्रे - सशब्दार्थे
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अभिग्रहार्थ. | मटमाणस्य भगवतविपये लोक वित
र्कादिकम्
पांच दिन कम छह मास पूर्ण हो गये इतना समय बीत जाने के बाद, दूसरे दिन, लोहे की सांकलों के बंधनों को तोड देने के स्थानापन्न अनादि काल से चले आ रहे भव बंधनों को तोड़ने के लिए लुहार के समान भगवान् महावीर धनावह श्रेष्ठी के घर चन्दन बाला के निकट पहुंचे। भगवान् को आये देखकर चन्दनबाला हर्षित हुई और सन्तोष को प्राप्त हुई, उसका चित्त आनन्दित हुआ। हर्ष की अधिकता से उसका हृदय उछलने लगा। वह मन ही मन सोचती-अहा, आज मुझे सुपात्र की प्राप्ति हुई। इससे प्रतीत होता है कि मेरा कुछ पुण्य शेष है, जिससे कल्पवृक्ष के समान यह भिक्षार्थी | श्रमण मेरे आंगन में आये हैं, इस प्रकार विचार कर चन्दनबाला भगवान् से प्रार्थना करती है,-'हे प्रभो ! यद्यपि तुच्छ होने के कारण यह आहार आपके योग्य नहीं है, आप जैसे अतिथि को तो विशिष्ट आहार अर्पित करना उचित है, तथापि यह तुच्छ अन्न भी सन्तोषामृत पीने वाले तथा एषणीय आहार की एषणा करने वाले आपको कल्पनीय हो
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