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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ भगवत. ॥३४८॥ अभिग्रहार्थअभिग्रह को पूरा नहीं कर सकते [एवं अडमाणस्त भगवओ पंचदिवसोणा छम्मासा मटमाणस्य वीइकता] इस प्रकार भगवान् को घूमते घूमते पांच दिन कम छह माह हो गये [तए बीए दिवसे लोहनिगडबंधनतोडण पडिनिहित्तम्मि अणाइकालीण भवबंधनं तोडणं विषये लोक वितकाऊं] तब दूसरे दिन लोहे की बेडियों को तोड़ने के स्थानापन्न अनादिकालीन संसार (1) कादिकम् बंधनों को तोडने के लिये [लोहयारहाणीए भगवं धनावहसेटिणो गिहे चंदणबालाए अंतीए समणुपत्ते] लोहकार के समान भगवान् धनावह सेठ के घर में चन्दनबाला के समीप पहुंचे [तं दवणं सा चंदणा हटुतुहा चित्तमाणंदिया हरिसवसविसप्पमाणहियया चिंतेइ] भगवान् को देखकर चन्दना हृष्टतुष्ट हुइ। उसके चित्त में आनन्द हुआ। हर्ष से उसका हृदय विकसित हो गया। वह सोचती है [अहो पत्तं मए पत्तं] अहा, आज मुझे सुपात्र की प्राप्ति हुइ है [किंचि पुण्णं ममथि वि जं इमो अतिही पत्तो] इस से प्रतीत होता है कि मेरा कुछ पुण्य शेष है ॥३४८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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