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कल्पसूत्रे सभन्दाथै ॥३४९||
अभिग्रहार्थमटमाणस्य भगवतविषये लोक वितकर्कादिकम्
[कप्परुक्खो ममंगणे जं इमो अतिही पत्तो] जिस से कल्पवृक्ष के समान यह भिक्षार्थी श्रमण मेरे आंगन में आये है [त्ति चिंतिय भगवं पत्थेइ-नो चियं इमं भत्तं भदंतस्स] तहवि जइ कप्पणिज्ज तो ममोवरि किवं काउं गिज्झउ] इस प्रकार विचार कर उसने भगवान् से प्रार्थना की-यह भोजन भगवान् के योग्य नहीं है तथापि यदि कल्पनीय हो तो हे भगवन् ! मुझ पर कृपा करके ग्रहण कीजिए [तए णं से भगवं तत्थ बारस पयाणि पडिपुण्णाणि पासइ] तब भगवान् ने वहां बारह बोलों का पूर्ण होना देखा । [अस्सुरूवं तेरसमं पयं न पासइ] किन्तु आंसु रूप तेरहवां बोल पूर्ण होता हुआ नहीं
देखा [तओ भगवं पडिनियइ] तब भगवान् वापस लोटने लगे [पडिनियमाणं भगवं दवणं चंदणा परिचिंतेइ] वापस लौटते हुए भगवान् को देख चन्दना सोचने लगी[आगओ भगवं एत्थ पच्छा एसो नियट्टिओ] भगवान् वीर प्रभु यहां पधारे और आहार ग्रहण किये बिना ही लौट गये [किं दुकमं मए चिण्णं, जस्सिम एरिसं
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