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________________ फस्पसूत्रे सशब्दा भगवत ॥३४७॥ कोदिकम् [केइ वयंति-उम्मत्तणेण भमइ] कोई कहता-यह भिक्षु पागलपन के कारण घूमता है अभिग्रहार्थ[अवरे वयंति-अयं कस्सवि राणो गुत्तयरो किंपि विसिटुं कज्जमुदिसिय अडइ] दूसरे मटमाणस्य कहते यह किसी राजा का गुप्तचर है, किसी विशेष कार्य को लेकर घूम रहा है : विषय [अण्णे वयंति-चोरोऽयं चोरियमुदिसिय अडइ] कोइ कहता-यह. चोर है. और चोरी l लोक वितकरने के उद्देश से घूम रहा है। [एगे वयंति-एसो चरिमो तित्थयंरो अभिग्गहेण अडइ] कोई कहता ये. अन्तिम तीर्थंकर हैं अभिग्रह के कारण घूमते हैं [तओ पच्छा सवे | जणा जाणिंसु जं एसणं तेलुकणाहे सव्वजगजीवहियगरे समणे भगवं महावीरे, दुकरदुक्करेणं अभिग्गहेणं अडइ] उसके बाद सभी लोगों को मालूम हो गया कि यह तीन . लोक के नाथ, जगत के समस्त जीवों के हितकारी, श्रमण भगवान् महावीर है और अतीव दुष्कर अभिग्रह के कारण भ्रमण कर रहे हैं [मंदभग्गा अम्हे ज़ं . एरिस महापुरिसस्स अभिग्गहें पुरिऊ न सकामो] हमलोग मंद भागी हैं कि ऐसे महापुरुष के ॥३४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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