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________________ सभन्दाथै ।।३४६॥ अभिग्रहार्य कल्पपत्रे । संजायं । सव्वत्थ हरिसपगरिसो जाओ देवदुंदुहिझुणिं सुणिय लोगा तत्थ आगं मटमाणस्य म तूण चंदणबालं थुइंसु। धणांवहसेट्ठिस्स धष्णवायं दलमाणा तबभज्ज मूलं भगवत विषये निदिसु। तं सोऊण चंदणबाला लोगे निवारेमाणा बदीअ भो लोगा! एवं मा लोक वितवयंतु मम उ एसेव मूला माया अणंतोवगारिणी अस्थि, जष्पभावेण अज्ज मए, कादिकम् एरिसे सुअवेसरे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागएत्ति ॥५६॥ . . . . . . . .....शब्दार्थ-[एवं पइदिणं भगवं अडमाणं पासिय लोगा अण्णमण्णं वितति] इस प्रकार प्रतिदिन परिभ्रमण करते हुए भगवान् को देखकर लोग परस्पर तर्क वितर्क करते थे [तत्थ केइ एवं वयंति-एस णं भिक्खू पइदिणं अडइ] उनमें से कोई कहता यह भिक्षु प्रतिदिन परिभ्रमण करता है [ण उण भिक्खं गिण्हइ] किन्तु । भिक्षा नहीं लेता [एत्थ केणवि कारणेण हायव्यं] इसमें कोई कारण होना चाहिये
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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