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सचन्दाथै
वर्णनम्
कल्पसूत्रे । 'अन्य मुनि भी इसी प्रकार आचरण करें यह सोचकर बुद्धिवान्, माहन, अप्रतिज्ञ भगवत
आचारपरि9 भगवान् ने अनेक बार इस आचारका पालन किया ॥५४॥
पालनविधे ॥३३०॥
भावार्थ-तब भगवान् वीर प्रभु ने ज्वर आदि रोगों से अछूते होने पर भी ऊनोदर [भूख से कम खाने रूप] तप का सेवन किया। कभी कुत्ता आदि ने काट खाया तो भी तथा सांस और खांसी आदि रोगों से रहित होने पर भी आगे कहीं ये रोग न हो जायें इसलिए उनके निवारण के हेतु भगवान् ने चिकित्सा का कदापि अनुमो-। दन नहीं किया। भगवान् वीर मलाशय आदि की शुद्धि, वमन [उल्टी-कै] शरीर की मालीश, स्नान, शारीरिक थकावट को मिटाने के लिए मर्दन और दातौन करने को
कर्म बन्धन का कारण जानकर कभी सेवन नहीं करते थे। मैथुन के त्यागी मौनी, " अहिंसा परायण होकर विचरते थे । शीत ऋतु में भगवन् वृक्ष आदि की छाया में
बैठकर धर्मध्यान में लीन रहते थे, और ग्रीष्म ऋतु में प्रचंड सूर्य की आतापना लेते ॥३३०॥